Jolly Uncle - Motivational Writer

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Saturday, April 30, 2011

कामेडी के मसीहा - चार्ली चैप्लिन

कामेडी के मसीहा - चार्ली चैप्लिन

वीरू के बेटे ने स्कूल से आते ही अपने पापा को बताया कि आज स्कूल में बहुत मजा आया। वीरू ने पूछा कि क्यूं आज पढ़ाई की जगह तुम्हें कोई कामेडी फिल्म दिखा दी जो इतना खुष हो रहे हो वीरू के बेटे ने कहा कि कामेडी फिल्म तो नही दिखाई लेकिन हमारे टीचर ने आज कामेडी फिल्म के जन्मदाता चार्ली चैप्लिन के बारे में बहुत कुछ नई जानकारियां दी है। पापा क्या आप जानते हो कि चार्ली चैप्लिन दुनियां के सबसे बड़े आदमियों में से एक थे। वीरू ने मजाक करते हुए कहा क्यूं वो क्या 12 नंबर के जूते पहनते थे? बेटे ने नाराज होते हुए कहा अगर आपको ठीक से सुनो तो मैं उनके बारे में बहुत कुछ बता सकता हॅू। जैसे ही वीरू ने हामी भरी तो उसके बेटे ने कहना षुरू किया कि हमारे टीचर ने बताया है कि चार्ली चैप्लिन का नाम आज भी दुनियां के उन प्रसिद्व हास्य कलाकारों की सूची में सबसे अवल नंबर पर आता है जिन्होने ने अपनी जुबान से बिना एक अक्षर भी बोले सारा जीवन दुनियां को वो हंसी-खुषी और आनंद दिया है जिसके बारे में आसानी से सोचा भी नही जा सकता। इस महान कलाकार ने जहां अपनी कामेडी कला की बदौलत चुप रह कर अपने जीते जी तो हर किसी को हसाया वही आज उनके इस दुनियां से जाने के बरसों बाद भी हर पीढ़ी के लोग उनकी हास्य की इस जादूगरी को सलाम करते है। 16 अप्रेल 1889 को इंग्लैंड में जन्में इस महान कलाकार की सबसे बड़ी विषेशता यह थी कि लोग न सिर्फ उनके हंसने पर उनके साथ हंसते थे बल्कि उनके चलने पर, उनके रोने पर, उनके गिरने पर, उनके पहनावे को देख कर दिल खोल कर खिलखिलाते थे। अगर इस बात को यू भी कहा जाये कि उनकी हर अदा में कामेडी थी और जमाना उनकी हर अदा का दीवाना था तो गलत न होगा।

पांच-छह साल की छोटी उम्र में जब बच्चे सिर्फ खेलने कूदने में मस्त होते है इस महान कलाकार ने उस समय कामेडी करके अपनी अनोखी अदाओं से दर्षको को लोटपोट करना षुरू कर दिया था। चार्ली चैप्लिन ने अपने घर को ही अपनी कामेडी की पाठषला और अपने माता-पिता को ही अपना गुरू बनाया। इनके माता-पिता दोनो ही अपने जमाने के अच्छे गायक और स्टेज के प्रसिद्व कलाकार थे। एक दिन अचानक एक कार्यक्रम में इनकी मां की तबीयत खराब होने की वजह से उनकी आवाज चली गई। थियेटर में बैठे दर्षको द्वारा फेंकी गई कुछ वस्तुओं से वो बुरी तरह घायल हो गई। उस समय बिना एक पल की देरी किये इस नन्हें बालक ने थोड़ा घबराते हुए लेकिन मन में दृढ़ विष्वास लिये अकेले ही मंच पर जाकर अपनी कामेडी के दम पर सारे षो को संभाल लिया। उसके बाद चार्ली चैप्लिन ने जीवन में कभी भी पीछे मुड़कर नही देखा।

सर चार्ली चैप्लिन एक सफल हास्य अभिनेता होने के साथ-साथ फिल्म निर्देषक और अमेरिकी सिनेमा के निर्माता और संगीतज्ञ भी थे। चार्ली चैप्लिन ने बचपन से लेकर 88 वर्श की आयु तक अभिनय, निर्देषक पटकथा, निर्माण और संगीत की सभी जिम्मेदारियों को बाखूबी निभाया। बिना षब्दों और कहानियों की हालीवुड में बनी फिल्मों में चार्ली चैप्लिन ने हास्य की अपनी खास षैली से यह साबित कर दिया कि केवल पढ़-लिख लेने से ही कोई विद्ववान नही होता। महानता तो कलाकार की कला से पहचानी जाती है और बिना बोले भी आप गुणवान बन सकते है। यह अपने युग के सबसे रचनात्मक और प्रभावषाली व्यक्तियों में से एक थे। इन्होनें सारी उम्र सादगी को अपनाते हुए कामेडी को ऐसी बुलदियों तक पहुंचा दिया जिसे आज तक कोई दूसरा कलाकार छू भी नही पाया। इनके सारे जीवन को यदि करीब से देखा जाये तो एक बात खुलकर सामने आती है कि इस कलाकार ने कामेडी करते समय कभी फूहड़ता का साहरा नही लिया। इसीलिये षायद दुनियां के हर देष में स्टेज और फिल्मी कलाकारों ने कभी इनकी चाल-ढ़ाल से लेकर कपड़ो तक और कभी इनकी खास स्टाईल वाली मूछों की नकल करके दर्षको को खुष करने की कोषिष की है।

हर किसी को मुस्कुराहट और खिलखिलाहट देने वाले मूक सिनेमा के आइकन माने जाने वाले इस कलाकार के मन में सदैव यही सोच रहती थी कि अपनी तारीफ खुद ही की तो क्या किया, मजा तो तभी है कि दूसरे लोग आपके काम की तारीफ करें। चार्ली चैप्लिन की कामयाबी का सबसे बड़ा रहस्य यही था कि इन्होने जीवन को ही एक नाटक समझ कर उसकी पूजा की जिस की वजह से यह खुद भी प्रसन्न रहते थे और दूसरों को भी सदा प्रसन्न रखते थे। इनके बारे में आज तक यही कहा जाता है कि इनके अलावा कोई भी ऐसा कलाकार नही हुआ जिस किसी एक व्यक्ति ने अकेले सारी दुनियां के लोगो को इतना मनोरंजन, सुख और खुषी दी हो। सारी बात सुनने के बाद वीरू ने कहा कि तुम्हारे टीचर ने चार्ली चैप्लिन के बारे में बहुत कुछ बता दिया लेकिन यह नही बताया कि उन्होने यह भी कहा था कि हंसी के बिना बीता हमारा हर दिन व्यर्थ होता है।

सर चार्ली चैप्लिन के महान और उत्साही जीवन से प्रेरणा लेते हुए जौली अंकल का यह विष्वास और भी दृढ़ हो गया है कि जो कोई सच्ची लगन से किसी कार्य को करते है उनके विचारो वाणी एवं कर्मो पर पूर्ण आत्मविष्वास की छाप लग जाती है। कामेडी के मसीहा चार्ली चैप्लिन ने इस बात को सच साबित कर दिखाया कि कोई किसी भी पेषे से जुड़ा हो वो चुप रह कर भी अपने पेषे की सही सेवा करने के साथ हर किसी को खुषियां दे सकता है।

जौली अंकल

Friday, April 29, 2011

JOLLY UNCLE's Jokes & Article's: ओकत - जोली अंकल का एक और रोचक लेख आप के लिए






Thursday, April 28, 2011

जोली अंकल का एक और रोचक लेख

’’ डा0 मुसद्दी लाल उर्फ मदारी ’’

डा0 मुसद्दी लाल उर्फ मदारी अभी अपनी दुकानदारी षुरू करने का मूड बना ही रहे थे कि वीरू ने वहां आकर चिल्लाना षुरू कर दिया। बात कुछ ऐसे हुई कि कुछ दिन पहले वीरू अपनी टांग का इलाज करवाने के लिये आया था। डा0 मुसद्दी लाल ने यह कह कर वीरू की नीली पड़ गई टांग को काट दिया कि उसमें तेजी से जहर फेल रहा है। अब जब उसके बाद वीरू को लकड़ी की नकली टांग लगा दी तो वो भी नीली होनी षुरू हो गई। अब वीरू को इस बात पर गुस्सा आ रहा था कि लकड़ी की टांग में कैसे जहर फेल सकता है? डा0 मुसद्दी लाल ने भी जब गौर से उसे देखा तो उन्हें समझ आया कि असल में टांग में कोई जहर नही फेला था बल्कि वीरू की पैंट का रंग निकल रहा था।

डा0 मुसद्दी लाल उर्फ मदारी का नाम गांव के सबसे पढ़े-लिखे लोगों में बड़ी इज्जत से लिया जाता है। वो कहां से और कितना पढ़े हैं, इसके ऊपर अभी भी जनता में षोध कार्य चल रहा है। गंावों के कुछ लोग इतना जरूर जानते हैं कि डाक्टरी की दुकानदारी शुरू करने से पहले वो किसी अस्पताल में नौकरी करते थे। वो वहां किस पद पर असीन थे, यह भी अभी तक एक गहरा राज है। इन सब बातों के बावजूद भी डा0 मुसद्दी लाल उर्फ मदारी की दुकान धड़ल्ले से चलती है। डा0 मुसद्दी लाल उर्फ मदारी सिरदर्द से षर्तिया बेटा होने तक की हर बीमारी का इलाज करने में माहिर है। किसी भी बीमारी से पीड़ित कोई भी मरीज उनके पास आ जाए, वो उसे दवाई लिये बिना नहीं जाने देते। जब किसी बीमारी को ठीक से नही समझ पाते या मरीज को समझाने में परेषानी होती तो यह उसे और उलझा देते है। एक दिन अभी डा0 अपनी कुर्सी पर आकर बैठे ही थे, कि एक गांव का चौधरी अपनी रोती चिल्लाती औरत को लेकर आ पहुंचा। ओ डा0 जरा इसने भी देख, सीढ़ियांे से गिर गई सै। लगता है कोई टांग की हड्डी टूट गई सै। इससे पहले कि डा0 जांच षुरू करके चोट के बारे में पूछता, पीछे रखे रेडियो से गाना षुरू हो गया, यह क्या हुआ, कैसे हुआ, कब हुआ? गाना सुनते ही मरीज भी दर्द को भूल कर वहां साथ बैठे सब लोगों के साथ जोर से हंसने लगी।

डा0 मदारी की दुकान लोगों के मनोरंजन और टाईमपास करने का गांव में सबसे सस्ता और बढ़िया जरिया है। एक बार एक अप-टू-डेट लड़का कोई दवाई लेने आ पहुंचा। डा0 के ध्यान न देने पर उसने कहा लगता है, आपने मुझे पहचाना नहीं। मैं चौधरी साहब का बेटा हंू। डा0 ने चश्मा ठीक करते हुए कहा, बेटा मैं कुछ नहीं भूलता मुझे तो तेरा बचपन तक याद है। जब मैं तुम्हारे घर आता था तो घर के बाहर नाली पर बैठ कर पौटी कर रहा होता था। जहां लोग सांस भी नहीं ले सकते, तू वहां साथ में बिस्कुट खाता रहता था। एक दिन मैं तेरे पिता से बात कर रहा था और तूने अन्दर आकर अपनी मां से कहा था, मम्मी आज मैंने सात ढ़ेरियां लगाईं। तेरी मां ने कहा, बेटे गिनती नहीं करते, नजर लग जाती है। पीछे से चौधरी साहब ने गुस्सा करते हुऐ तेरी मां कोे कहा था, बेवकूफ उसने कोई डालरों के ढेर नहीं लगाए - गन्दगी के ढ़ेरों की बात कर रहा है। वो लडका दवाई लेना तो भूल गया और आखंे नीची करके वहां से खिसकने में ही उसे अपनी भलाई नजर दिखाई दे रही थी।

डा0 मुसद्दी लाल मदारी अखबारों और मैगजीन से दादा-दादी के नुस्खे पढ़कर एक अरसे से अपनी दवाईयांे की दुकानदारी चला रहे है। लेकिन कई बार मरीजों को गलत दवाई देने के साथ गलत मरीजांे के साथ पंगा भी हो जाता है। ऐसा ही एक घटना उनके साथ पिछले दिनों में घटी। गांव के थानेदार की तबीयत कुछ खराब हुई तो उन्हें भी डा0 मदारी की याद सताने लगी। थानेदार साहब थोडी देर बाद ही डाक्टर के सामने बैठे थे। कुछ इधर-उधर की बातें करने के बाद थानेदार ने अपनी तकलीफों की लिस्ट डाक्टर को सुनानी षुरू कर दी। डा0 मुसद्दी लाल मदारी मन ही मन बहुत प्रसन्न हो रहे थे कि आज बहुत दिनों के बाद कोई अच्छा सा मुर्गा हाथ लगा है। कुछ दवाईयां जो बरसों से डिब्बो में बन्द थीं उन्हें भी आज ताजी हवा नसीब होगी। थानेदार की आधी-अधूरी बात सुन कर डाक्टर ने अपनी पुरानी आदतानुसार दवाईयां तैयार करनी षुरू कर दी। चार-पांच अलग किस्म की गोलियां और एक दवाई की बोतल थानेदार के सामने रख दी। इससे पहले की थानेदार कुछ कहता, मुसद्दी लाल की किस्मत खराब, उसने 250 रूपये फीस की फरमाईश कर दी।

डाक्टर के पैसे मांगने की हिम्मत देखकर थानेदार का खून उबलने लगा था। पूरे इलाके में आज तक किसी ने दूध-दही, राशन वाले ने भी यह गलती नहीं की थी। थानेदार को लग रहा था कि जैसे पैसे मांग कर डाक्टर ने उसे कोई गाली दे दी हो। इतने रौब-दाब वाले थानेदार से पैसे मांग कर डा0 मदारी ने कितनी बड़ी गलती की थी, इसका अन्दाजा उसे भी होने लगा था। थानेदार ने पैसे तो क्या देने थे, हां डाक्टर की डाक्टरी पर जरूर कई प्रश्न चिन्ह लगा दिये। उससे उसकी पढ़ाई और डिग्रियों के बारे मे तफतीष षुरू कर दी थी। गांव में हुई एक-दो मौतों की जिम्मेदारी भी डा0 मदारी के ऊपर डाल दी। अब तक डाक्टर को अच्छी तरह से समझ आ गया, कि उसने जानबूझ कर मधुमक्खियांे के छत्ते में हाथ डाल दिया है। अब उससे बचने के लिये थानेदार साहब के लिये बढ़िया से नाश्ते पानी का इन्तजाम षुरू कर दिया। इससे पहले कि डाक्टर का नौकर नाश्ता-पानी ले कर आता, थानेदार ने डाक्टर की कमाई का हिसाब लगाना षुरू कर दिया। डाक्टर ने भी मौके की नजाकत को समझते हुऐ पिछले 15-20 दिनों की सारी कमाई थानेदार की जेब में डाल दी। अपनी दुकानदारी को आगे भी ठीक से चलता रखने के लिये कई बार माफी भी मांगी। जहां आजकल मुन्ना भाई जादू की झप्पी से लोगों का इलाज करता है। वही हमारे प्रिय डा0 मुसद्दी लाल मदारी के अधिकतर मरीज तो इनकी चुलबुली हरकतों से ही ठीक हो जाते हैं। सीखने वाले अपनी हर भूल से कुछ न कुछ जरूर सीखते है। जौली अंकल का मानना है कि बेवकूफों की बातों का कभी भी बुरा नही मानना चहिये, क्योंकि यह तो बाबा आदम के जमाने से ही बहुमत में रहते आये है। परंतु डा0 मुसद्दी लाल उर्फ मदारी जैसे डॉक्टरो से दूर रहने का सबसे बढ़ियां तरीका है कि आप हंसकर अपने दुखों को दूर कर सकते है, परन्तु रोने से तो आपके दुख और बढ़ते ही है।

Tuesday, April 26, 2011

’’ कसक कलम की ’’

मिश्रा जी की कलम से तराषी पहली चंद पुस्तकों की भारी सफलता और मुनाफे के मद्दे्नजर जैसे ही प्रकाषक महोदय को उनकी नई पुस्तक के बारे मे मालूम हुआ तो वो अपने सभी जरूरी कामों को भूलकर मिश्रा जी के घर के चक्कर लगाने लगे। किसी न किसी बहाने कभी थोड़ी बहुत मिठाई एवं फल लेकर यह महाषय उनके घर जा धमकते। यह दौर तब तक जारी रहा जब तक मिश्रा जी ने अपनी नई पुस्तक को छापने की अनुमति और पांडुलिपि प्रकाषक को नही थमा दी। एक अच्छे षिकारी की तरह प्रकाषक अच्छी तरह से समझता था कि पाठकगण इस महान लेखक की कलम से निकले हुऐ हर मोती की मुंह मांगी कीमत खुषी-खुषी चुका सकते है।

जैसे ही प्रकाषक महाषय को मालूम हुआ कि जल्द ही विष्व पुस्तक मेला षुरू हो रहा है तो इन्होने मिश्रा जी की नई पुस्तक को जल्द से जल्द छपवाने के लिए दिन-रात एक कर डाला। सहित्य के कद्रदान से अधिक एक व्यापारी होने के नाते इस पुस्तक मेले में अधिक से अधिक बिक्री करने का मौका यह अपने हाथ से नही खोना चाहते थे। एक और जहां जल्द ही इस नई पुस्तक के बड़े-बड़े बोर्ड सारे षहर की षोभा बढ़ा रहे थे वहीं दूसरी और समाचार पत्रों में षिक्षा मंत्री द्वारा पुस्तक के विमोचन के समाचार भी धडल्ले से छपने लगे। बाकी सारी जनता को न्योता भेजने के बाद प्रकाषक साहब को इस महषूर परंतु सीधे-साधे लेखक की भी याद आ ही गई। अपनी पुस्तक के विमोचन का समाचार पाते ही मिश्रा जी की खुषी सातवें आसमान को छूने लगी। बधाई देने आऐ हुए मित्रगणों के सामने मिश्रा जी छोटे बच्चो की तरह इतरा रहे थे। यह सब कुछ देख उनकी पत्नी को मेहमानों को चाय-पानी पिलाना भारी लग रहा था। पहले से ही बुरी तरह से तंगी के कारण बिलबिलाते मिश्रा जी के परिवार को बिजली, पानी और दूसरे जरूरी बिल तिलमिलाने को मजबूर कर रहे है।

इंतजार की घडि़यां जल्दी ही खत्म होकर पुस्तक विमोचन का दिन आ गया। मिश्रा जी सुबह से ही अपने सफेद बालों में खिजाब लगा कर और षादी के मौके पर पहनी हुई षेरवानी पहन कर मेले में जाने के लिये तैयार हो गये। जब जूते पहनने की बारी आई तो बरसों पुराने जूतो ने इस मौके पर मिश्रा जी का साथ निभाने से इंकार कर दिया। न चाहते हुए भी इतने बड़े लेखक को अपने पड़ोसी से जूते मांगने पड़े। सुबह से घंटो राह देखने पर भी जब प्रकाषक महोदय की गाड़ी इन्हेें लेने नही आई तो इन्होनें खुद ही आटो रिक्षा से जाने का मन बना लिया। परंतु जब जेब में हाथ डाला तो लक्ष्मी देवी का दूर-दूर तक कोई पता नही था। किसी तरह हिम्मत जुटा कर लेखक महोदय ने अपनी बीवी से चंद रूप्यों की फरमाईष कर डाली। पत्नी ने तपाक् से कह दिया कि मुन्नी कल से बुखार में तप रही है, अब यदि यह पैसे भी आप ले जाओंगे तो उसकी दवा कैसे ला पाऊगी? मिश्रा जी ने उसे तस्सली देते हुए कहा कि तुम किसी तरह आज ठंडे पानी की पट्टीया लगा कर काम चला लो। भगवान ने चाहा तो इस पुस्तक के बाजार में आते ही सारे दुख दर्द दूर हो जायेगे।

जनसाधारण से लेकर नेता तक सभी यही उम्मीद करते है कि देष में फिर से यदि प्यार, भाईचारा व षंति कायम करनी है तो यह काम केवल कलम के माध्यम से ही किया जा सकता है। इतिहास साक्षी है कि समाज में सभी जरूरी बदलाव लेखक की बदोैलत ही मुमकिन हुए है। ऐसे में हम सभी इस बात को क्यूं भूल जाते है कि जो लेखक अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी का जुगाड़ नही कर सकता। जिसका अपना जीवन अंधकार में है वो समाज को किस प्रकार रोषनी की राह पर ला सकता है?

जब कभी भी हिंन्दी लेखक की कोई पुस्तक प्रकाषित होती है तो चंद समाचार पत्रों में अपनी दो-चार फोटो देख कर ही उसकी बांछे खिल जाती है। हिंन्दी का आम लेखक तो कभी किसी उत्सव में फूल माला पहनकर, कभी कोई छोटा-मोटा सम्मान पाकर ही खुद को महान समझने लगता है। इसका एक मात्र कारण यही समझ आता है कि आमतौर पर कोई भी हिंन्दी लेखक को भाव नही देता। कहने वालों ने तो तुलसीदास जी तक को कह दिया था कि क्या दो कोड़ी का लिखते हो? दूसरे देषो की बात को यदि छोड़ भी दे तो अपने ही देष में हिन्दी बोलने वालो को हीन भावना से देखा जाता है। हिन्दी लेखक को अपनी कलम से निकले हुए अल्फाजों को पाठको तक पहुंचाने के लिए अपने स्वाभिमान तक को तिलांजलि देकर संपादको और इस धंधे से जुड़े व्यापारीयों की चापलूसी करनी पड़ती है।

लेखक तो उस वृक्ष की तरह है तो अपना सब कुछ केवल दूसरों को देना जानता है। जब कभी किसी वृक्ष की उंम्र पूरी हो जाती है तो भी वो ढे़रों लकड़ी हमें दे जाता है। लेकिन यह सब कुछ तभी मुमकिन हो पाता है जब हम उस वृक्ष की ठीक से देख भाल करे। हमारे यहां लेखकों को अक्सर बड़े-बड़े समारोहों में अनमोल रत्न और न जानें कैसी बड़ी उपाधियों से नवाजा जाता है। लेकिन चंद दिन बाद किसी को लेखक की सुध लेने का ध्यान तक नही रहता। प्रकाषक और संपादक वर्ग लेखक की भावनाओं का जमकर दुरूप्योग करते हुए उन्हें अंधकार की और धकेल रहे है। हर समाचार पत्र और पत्रिकाऐं विज्ञापनों के माध्यम से लाखों रूप्यें कमा रहे है। ऐसे में क्या हमारे इतने बड़े लोकतंत्र में लेखको के हितो की सुरक्षा के लिये कोइ्र्र व्यवस्था नही हो सकती? इस बात को असानी से समझा जा सकता है कि कुदरत के बाद यदि कोई बड़ा विष्वविद्यालय है तो वो है हमारे समाज का लेखक। मूर्ख आदमी तो ज्ञान का एक ही अंग देखता है और लेखक ज्ञान के सौ अंगो को देखता है। इसी से वो समाज को आत्मनिर्भर बनाने का काम कर सकता है। जौली अंकल भी एक लेखक होने के नाते कलम की कसक को समझते हुए इतना ही लिखना चाहते है कि असली ज्ञान वही है, जो अपने ज्ञान से दूसरों को लाभन्वित करें।
’’ जौली अंकल

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’’ कसक कलम की ’’

मिश्रा जी की कलम से तराषी पहली चंद पुस्तकों की भारी सफलता और मुनाफे के मद्दे्नजर जैसे ही प्रकाषक महोदय को उनकी नई पुस्तक के बारे मे मालूम हुआ तो वो अपने सभी जरूरी कामों को भूलकर मिश्रा जी के घर के चक्कर लगाने लगे। किसी न किसी बहाने कभी थोड़ी बहुत मिठाई एवं फल लेकर यह महाषय उनके घर जा धमकते। यह दौर तब तक जारी रहा जब तक मिश्रा जी ने अपनी नई पुस्तक को छापने की अनुमति और पांडुलिपि प्रकाषक को नही थमा दी। एक अच्छे षिकारी की तरह प्रकाषक अच्छी तरह से समझता था कि पाठकगण इस महान लेखक की कलम से निकले हुऐ हर मोती की मुंह मांगी कीमत खुषी-खुषी चुका सकते है।

जैसे ही प्रकाषक महाषय को मालूम हुआ कि जल्द ही विष्व पुस्तक मेला षुरू हो रहा है तो इन्होने मिश्रा जी की नई पुस्तक को जल्द से जल्द छपवाने के लिए दिन-रात एक कर डाला। सहित्य के कद्रदान से अधिक एक व्यापारी होने के नाते इस पुस्तक मेले में अधिक से अधिक बिक्री करने का मौका यह अपने हाथ से नही खोना चाहते थे। एक और जहां जल्द ही इस नई पुस्तक के बड़े-बड़े बोर्ड सारे षहर की षोभा बढ़ा रहे थे वहीं दूसरी और समाचार पत्रों में षिक्षा मंत्री द्वारा पुस्तक के विमोचन के समाचार भी धडल्ले से छपने लगे। बाकी सारी जनता को न्योता भेजने के बाद प्रकाषक साहब को इस महषूर परंतु सीधे-साधे लेखक की भी याद आ ही गई। अपनी पुस्तक के विमोचन का समाचार पाते ही मिश्रा जी की खुषी सातवें आसमान को छूने लगी। बधाई देने आऐ हुए मित्रगणों के सामने मिश्रा जी छोटे बच्चो की तरह इतरा रहे थे। यह सब कुछ देख उनकी पत्नी को मेहमानों को चाय-पानी पिलाना भारी लग रहा था। पहले से ही बुरी तरह से तंगी के कारण बिलबिलाते मिश्रा जी के परिवार को बिजली, पानी और दूसरे जरूरी बिल तिलमिलाने को मजबूर कर रहे है।

इंतजार की घडि़यां जल्दी ही खत्म होकर पुस्तक विमोचन का दिन आ गया। मिश्रा जी सुबह से ही अपने सफेद बालों में खिजाब लगा कर और षादी के मौके पर पहनी हुई षेरवानी पहन कर मेले में जाने के लिये तैयार हो गये। जब जूते पहनने की बारी आई तो बरसों पुराने जूतो ने इस मौके पर मिश्रा जी का साथ निभाने से इंकार कर दिया। न चाहते हुए भी इतने बड़े लेखक को अपने पड़ोसी से जूते मांगने पड़े। सुबह से घंटो राह देखने पर भी जब प्रकाषक महोदय की गाड़ी इन्हेें लेने नही आई तो इन्होनें खुद ही आटो रिक्षा से जाने का मन बना लिया। परंतु जब जेब में हाथ डाला तो लक्ष्मी देवी का दूर-दूर तक कोई पता नही था। किसी तरह हिम्मत जुटा कर लेखक महोदय ने अपनी बीवी से चंद रूप्यों की फरमाईष कर डाली। पत्नी ने तपाक् से कह दिया कि मुन्नी कल से बुखार में तप रही है, अब यदि यह पैसे भी आप ले जाओंगे तो उसकी दवा कैसे ला पाऊगी? मिश्रा जी ने उसे तस्सली देते हुए कहा कि तुम किसी तरह आज ठंडे पानी की पट्टीया लगा कर काम चला लो। भगवान ने चाहा तो इस पुस्तक के बाजार में आते ही सारे दुख दर्द दूर हो जायेगे।

जनसाधारण से लेकर नेता तक सभी यही उम्मीद करते है कि देष में फिर से यदि प्यार, भाईचारा व षंति कायम करनी है तो यह काम केवल कलम के माध्यम से ही किया जा सकता है। इतिहास साक्षी है कि समाज में सभी जरूरी बदलाव लेखक की बदोैलत ही मुमकिन हुए है। ऐसे में हम सभी इस बात को क्यूं भूल जाते है कि जो लेखक अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी का जुगाड़ नही कर सकता। जिसका अपना जीवन अंधकार में है वो समाज को किस प्रकार रोषनी की राह पर ला सकता है?

जब कभी भी हिंन्दी लेखक की कोई पुस्तक प्रकाषित होती है तो चंद समाचार पत्रों में अपनी दो-चार फोटो देख कर ही उसकी बांछे खिल जाती है। हिंन्दी का आम लेखक तो कभी किसी उत्सव में फूल माला पहनकर, कभी कोई छोटा-मोटा सम्मान पाकर ही खुद को महान समझने लगता है। इसका एक मात्र कारण यही समझ आता है कि आमतौर पर कोई भी हिंन्दी लेखक को भाव नही देता। कहने वालों ने तो तुलसीदास जी तक को कह दिया था कि क्या दो कोड़ी का लिखते हो? दूसरे देषो की बात को यदि छोड़ भी दे तो अपने ही देष में हिन्दी बोलने वालो को हीन भावना से देखा जाता है। हिन्दी लेखक को अपनी कलम से निकले हुए अल्फाजों को पाठको तक पहुंचाने के लिए अपने स्वाभिमान तक को तिलांजलि देकर संपादको और इस धंधे से जुड़े व्यापारीयों की चापलूसी करनी पड़ती है।

लेखक तो उस वृक्ष की तरह है तो अपना सब कुछ केवल दूसरों को देना जानता है। जब कभी किसी वृक्ष की उंम्र पूरी हो जाती है तो भी वो ढे़रों लकड़ी हमें दे जाता है। लेकिन यह सब कुछ तभी मुमकिन हो पाता है जब हम उस वृक्ष की ठीक से देख भाल करे। हमारे यहां लेखकों को अक्सर बड़े-बड़े समारोहों में अनमोल रत्न और न जानें कैसी बड़ी उपाधियों से नवाजा जाता है। लेकिन चंद दिन बाद किसी को लेखक की सुध लेने का ध्यान तक नही रहता। प्रकाषक और संपादक वर्ग लेखक की भावनाओं का जमकर दुरूप्योग करते हुए उन्हें अंधकार की और धकेल रहे है। हर समाचार पत्र और पत्रिकाऐं विज्ञापनों के माध्यम से लाखों रूप्यें कमा रहे है। ऐसे में क्या हमारे इतने बड़े लोकतंत्र में लेखको के हितो की सुरक्षा के लिये कोइ्र्र व्यवस्था नही हो सकती? इस बात को असानी से समझा जा सकता है कि कुदरत के बाद यदि कोई बड़ा विष्वविद्यालय है तो वो है हमारे समाज का लेखक। मूर्ख आदमी तो ज्ञान का एक ही अंग देखता है और लेखक ज्ञान के सौ अंगो को देखता है। इसी से वो समाज को आत्मनिर्भर बनाने का काम कर सकता है। जौली अंकल भी एक लेखक होने के नाते कलम की कसक को समझते हुए इतना ही लिखना चाहते है कि असली ज्ञान वही है, जो अपने ज्ञान से दूसरों को लाभन्वित करें।
’’ जौली अंकल

कमजोर नींव

’’ कमजोर नींव ’’

प्रेम बाबू ने षादी के तुंरत बाद गांव के साथ अपने एक जोड़ी माता-पिता को अलविदा कह कर अपनी अदद बीवी के साथ दिल्ली के एक पाॅष इलाके में डेरा जमां लिया था। कुछ ही समय बाद उनकी मार्डन बीवी के न चाहते हुए भी ऊपर वाले ने उनके घर एक प्यारा सा बेटा भेज दिया। प्रेम बाबू की मैंडम आधुनिक और आजाद ख्याल की मालिक होने के साथ एक मल्टीनैषनल कम्पनी में महत्वपूर्ण औदे पर आसीन थी। अपनी पर्सनैलिटी की फिक्र के चलते मैंडम साहिबा ने अपने बेटे को मां के दूध से महरूम रखते हुए उसका काम भी बाजार में मिलने वाले डिब्बाबंद दूध से ही चलाया था। इन्हें अपने पति और बेटे से अधिक हर समय अपने बाॅस का ख्याल रहता था, कि उन्होने खाना और दवा समय पर ली या नही। अगर उनकी बीवी मायके गई है तो घर से उनकी पंसद का सारा खाना तैयार करना मैंडम की सबसे पहली प्राथमिकताओ में से एक होती है।

आज सुबह से ही सारे षहर में सुहावने मौसम के बावजूद प्रेम बाबू के घर में तुफान का महौल बना हुआ था। इससे पहले कि यह तुफान सारे घर में तबाई मचा दे प्रेम बाबू दौड़-दौड़ कर अपनी पत्नी के काम में हाथ बंटा रहे थे। अब आप सोच रहे होगे कि अगर सारे षहर का मौसम खुषनुमा था तो प्रेम बाबू के घर सुनामी जैसा खतरा क्यूं मंडरा रहा था? जी हजूर इसका छोटा सा कारण यह था कि इनकी नौकरानी जो घर में खाना बनाने के साथ इनके बेटे की देखभाल करती थी वो अचानक बिना बताऐ छुट्टी कर गई थी। अभी यह सारी तनावपूर्ण हलचल चल ही रही थी कि अचानक बडे़ जोर से दरवाजे की घंटी बजी। दरवाजे पर मां और बाबू जी को कई बरसों के बाद देखने पर प्रेम बाबू के चेहरे पर खुषी की जगह ऐसे भाव आ रहे थे जैसे उसके सिर पर बिजली कौंध गई हो। औपचारिकता निभाते हुए प्रेम बाबू ने कहा कि आने से पहले कोई संदेष भेज देते तो मैं खुद स्टेषन पर आ जाता। प्रेम बाबू की मां ने कहा कि बेटा सदेंषा तो गैरो को भेजा जाता है, अपने घर आने के लिये कैसा संदेष?

किसी तरह हिम्मत जुटा कर प्रेम बाबू ने अपनी पत्नी को गांव से मां और बाबू के आने की सूचना दी। प्रेम बाबू की पत्नी दफतर जाने की जल्दी में सास-ससुर को बिना कोई चाय-नाष्ता पूछे ही अपना बैग और बेटे को लेकर चल दी। जैसे तैसे प्रेम बाबू ने अपनी मां के साथ मिल कर कुछ खाने पीने का इंतजाम किया। मां ने बेटे से पूछा कि बहू पोते को क्यूं साथ ले गई है? प्रेम बाबू ने बताया कि आज हमारे यहां काम करने वाली नौकारानी नही आई, यह अब उसे पड़ोस में काम करने वाली एक बाई के यहां छोड़ कर जायेगी। खैर आप बताओ कि अचानक दिल्ली आने का कैसा प्रोग्राम बना लिया? इससे पहले की मां कुछ बोलती बाबू जी ने बताया कि तुम्हारी मंा को हर समय पेट में दर्द रहता है, गांव के डाॅक्टर ने कुछ और टैस्ट करवाने के लिये कहा जो सिर्फ दिल्ली में ही हो सकते थे। बस इसीलिये एक दम से यहां आना पड़ा। प्रेम बाबू ने माफी मांगते हुए कहा कि आज बिल्कुल चिंता न करें, आज तो मेरा दफतर जाना बहुत जरूरी है लेकिन एक दो दिन में छुट्टी लेकर में खुद साथ चल कर सारे टैस्ट करवां दूंगा।

प्रेम बाबू के पिता ने कहा बेटा तू फिक्र मत कर। मैं पहले भी कई बार यहां आ चुका हॅू यह थोड़े से टैस्ट तो मैं खुद ही करवां लूंगा। कुछ ही देर में मां और बाबू जी अस्पताल के सारे कागज संभाल कर टैस्ट करवाने के लिये निकल पड़े। अस्पताल से घर वापिस आते समय जब उनका आटोरिक्षा लाल बत्ती पर रूका तो मैले कुचैले कपड़े पहने एक औरत छोटा सा बच्चा उठाऐ उनसे भीख मांगने लगी। बर्जुग लोग अक्सर कहते है कि अपना खून अपना ही होता है। प्रेम बाबू की मां ने बाबू जी से कहा कि यह बच्चा तो बिल्कुल अपने पौते की तरह लग रहा है। बाबू जी ने उसे डांटते हुए कहा कि तुम भी न जानें क्या-क्या सोचती रहती हो? यह भिखारी का बच्चा हमारा पौता कैसे हो सकता है?

देर षाम को जब बहू अपने बेटे को घर लेकर आई तो प्रेम बाबू की मां ने झट से बच्चे के पैर को गौर से देखा। प्रेम बाबू ने जब इसका कारण पूछा तो मां ने उसे घर के एक कोने में ले जाकर सारी बात बता दी। मां की बात सुनते ही प्रेम बाबू के पैरो तले की जमीन खिसक गई। उसने किसी तरह यह बात अपनी पत्नी को समझाने का प्रयास किया। पहले तो मैंडम सहिबा आग बबूला हो उठी, फिर पति के बार-बार कहने पर उस बाई को बुला कर बात करने को मान गई। जैसे ही उसे पुलिस के हवाले करने की धमकी दी तो उसने झट से मान लिया कि जब आप लोग काम पर चले जाते हो तो हम आपके बच्चो को अपने साथ ले जा कर चैराहो पर भीख मांगते है। इतने सुदर बच्चो को देख कर लोग काफी अच्छे पैसे दे देते है। बाबू जी को कुछ समझ नही आ रह था कि गांव के इतने बड़े जमींदार घराने के पौते से किस प्रकार सड़क पर भीख मंगवाई जा रही है।

एक समझदार इंसान की तरह उन्होने ने अपना संतलुन बनाते हुए अपनी बहू को कहा कि हम जानते है कि हमारे यह सीधे-साधे वस्त्र देखकर तुम हमें छोटा समझ रही हो और हम लोग तुम्हें अच्छे नही लगते? लेकिन एक बात कभी मत भूलो कि कोई कितना भी बुरा क्यों न हों उसमें अनेक गुण विद्यमान रहते है। बेटा षहर में रह कर पैसा कमाना बहुत जरूरी है लेकिन इस बात को कैसे झुठला सकते हो कि जो बच्चे नौकरो की उंगली पकड़ कर चलना सीखते है उनको बाद में अपने मां-बाप के साथ चलने में षर्म आती है। आप चाहे सारी उंम्र अपने बेटे को किसी चीज की कमी न होने दे, लेकिन एक समय वो आपके हर काम में कमीयां निकालेगा। जिन बच्चो को नौकर और बाईयां बोलना सिखाते है उनके मां-बाप को सदा अपषब्द सुनने को मिलते है। ऐसे बच्चो को आप चाहे सारी उंम्र सहारा समझ कर पालते रहो लेकिन मुसीबत के समय वह आपको बेहसाहरा छोड़ देते है। उस समय आप जैसे मां-बाप के पास अपने गमों और दुखो को लेकर रोने के सिवाए कोई चारा नही बचता।

इस सारे नजारे को देखने के बाद जौली अंकल भी युवा पैरेन्टस को यही सदेंष देना चाहते है कि यदि आप उम्मीद करते हो कि आपके बच्चे हर समय ताजे फूलों की हंसते-मुस्कुराहते हुए अच्छे नागरिक बने तो यह तभी मुमकिन है जब छोटे बच्चो को माता-पिता से अच्छे संस्कार मिलेगे। कोई भी इमारत तब तक मजबूत नही बन सकती जब तक उसकी नींव कमजोर हो।

’’जौली अंकल’’